MAA SHRI RENUKA JI

यहां झील के रूप में स्थित हैं 'मां रेणुका', हर साल मिलने आते हैं भगवान परशुराम

हिमाचल प्रदेश में शिवालिक पहाड़ियों के आंचल में सिरमौर जिला की खूबसूरत वादियों के बीच नाहन से 37 किलोमीटर दूर उत्तर भारत की प्रसिद्ध धार्मिक एवं पर्यटन स्थल श्री रेणुका जी स्थित है। नारी देह के आकार की प्राकतिक झील यहां पर मौजूद है, जिसे मां श्री रेणुका जी की प्रतिछाया भी माना जाता है।


हर साल भगवान परशुराम मिलने आते हैं अपनी मां रेणुका से

नवंबर माह में श्री रेणुका जी में अंतरराष्टीय मेला आयोजित किया जाता है। इस दौरान भगवान परशुराम अपनी माता श्री रेणुका से मिलने यहां पहुंचते हैं। हर किसी को इस वक्त का बेसब्री से इंतजार होता है, जब उनके आराध्य देव भगवान परशुराम अपनी मां से मिलने तीर्थस्थल श्री रेणुका जी पहुचते हैं। मां-बेटे के इस मिलन का गवाह बनने के लिए हर साल हजारों की तादाद में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं।



क्या है इतिहास

जनश्रुति के अनुसार प्राचीन काल में आर्यव्रम में हैयवंशी क्षेत्रीय राज करते थे। भृगवंशी ब्राह्मण उनके पुरोहित थे। इसी भृगवंशी के महाऋषि ऋचिक के घर महर्षि जन्मदग्नि का जन्म हुआ। उनका विवाह इक्ष्वाकु कुल के ऋषि रेणु की कन्या रेणुका से हुआ। महर्षि जन्मदग्नि परिवार सहित इसी क्षेत्र में तमस्या में मग्न रहने लगे। जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की, वह तपे का टीला कहलाता है।
वैशारव शुक्ल की तृतीया को मां रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम ने जन्म लिया, जिन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार माना जाता है। अश्वत्थामा, ब्यास, बलि, हनुमान, विभीषण, करपाचार्य, मारकंडेय सहित अष्ठ चिरंजीवियों के साथ भगवान परशुराम भी चिरंजीवी है। 
कथानक के अनुसार प्राचीन काल में आर्यवर्त में हैहय वंशी क्षत्रीय राज करते थे। भृगुवंशी ब्राह्मण उनके राज पुरोहित थे। इसी भृगुवंश के महर्षि ऋचिक के घर महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ। इनका विवाह इक्ष्वाकु कुल के ऋषि रेणु की कन्या रेणुका से हुआ।महर्षि जमदग्नि सपरिवार इसी क्षेत्र में तपस्या करने लगे। जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की वह तपे का टीला कहलाता है। महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु गाय थी जिसे पाने के लिए सभी तत्कालीन राजा, ऋषि लालायित थे। राजा अर्जुन ने वरदान में भगवान दतात्रेय से एक हजार भुजाएं पाई थीं। जिसके कारण वह सहस्त्रार्जुन कहलाए जाने लगे। एक दिन वह महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु मांगने पहुंचे। महर्षि जमदग्नि ने सहस्त्रबाहु एवं उसके सैनिकों का खूब सत्कार किया।उसे समझाया कि कामधेनु गाय उसके पास कुबेर जी की अमानत है। जिसे किसी को नहीं दे सकते। गुस्साए सहस्त्रबाहु ने महर्षि जमदग्नि की हत्या कर दी। यह सुनकर मां रेणुका शोकवश राम सरोवर मे कूद गई। राम सरोवर ने मां रेणुका की देह को ढकने का प्रयास किया। जिससे इसका आकार स्त्री देह समान हो गया। जिसे आज पवित्र रेणुका झील के नाम से जाना जाता है। परशुराम अति क्रोध में सहस्त्रबाहु को ढूंढने निकल पड़े। उसे युद्ध के लिए ललकारा। भगवान परशुराम ने सेना सहित सहस्त्रबाहु का वध कर दिया।भगवान परशुराम ने अपनी योगशक्ति से पिता जमदग्नि तथा मां रेणुका को जीवित कर दिया। माता रेणुका ने वचन दिया कि वह प्रति वर्ष इस दिन कार्तिक मास की देवोत्थान एकादशी को अपने पुत्र भगवान परशुराम से मिलने आया करेंगी।



प्रदेश में यह सबसे बड़ी झील है और पर्यटकों के लिए है बेहद खास

हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर में यह रेणुका झील मौजूद है। यह झील समुद्र के स्तर से ऊपर 672 मीटर है। 3214 मीटर की परिधि के साथ प्रदेश में यह सबसे बड़ी झील है। इस झील को मां रेणुका झील के नाम से जाना जाता है। यह पर्यटन नगरी बेहतर सड़क मार्ग से जुड़ी है। रोजाना सैंकड़ों पर्यटक झील में नौकायान का लुत्फ उठाते हैं। साथ ही यहां एक लॉयन सफारी व चिड़ियाघर भी मौजूद है, जोकि इस क्षेत्र के लिए आकर्षण का केंद्र बिंदु है।





हर साल  रेणुका जी में होता है अंतरर्राष्ट्रीय मेले का अयोजन 

मेला श्री रेणुका मां के वात्सल्य एवं पुत्र की श्रद्धा का एक अनूठा आयोजन है। पांच दिन तक चलने वाले इस मेले में आसपास के सभी ग्राम देवता अपनी-अपनी पालकी में सुसज्जित होकर मां-पुत्र के इस दिव्य मिलन में शामिल होते हैं। राज्य सरकार द्वारा इस मेले को अंतरराष्ट्रीय मेला घोषित किया गया है। हर किसी को इस वक्त का बेसब्री से इंतजार होता है, जब उनके आराध्य देव भगवान परशुराम अपनी मां से मिलने तीर्थस्थल श्री रेणुका जी पहुचते हैं। मां-बेटे के इस मिलन का गवाह बनने के लिए हर साल हजारों की तादाद में श्रद्धालु यहां पहुंचते हैं। परंपरा के अनुसार हर साल इस मेले का शुभारंभ मुख्यमंत्री द्वारा किया जाता है और समापन समारोह में राज्यपाल शिरकत करते हैं। हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा के लाखों श्रद्धालुओं की इस पवित्र स्थान के प्रति अटूट आस्था है। पांच दिन तक चलने वाले इस मेले में आसपास के सभी ग्राम देवता अपनी-अपनी पालकियों में सुसज्जित होकर मां-पुत्र के इस दिव्य मिलन में शामिल होने आते हैं।





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