आज तक इस रहस्यमयी पहाड़ की ऊंचाई को कोई नहीं नाप पाया
भगवान शिव से जुड़े देश भर में ऐसे कई स्थान हैं जो भोलेनाथ के चमत्कारों के गवाह रहे हैं। ऐसी ही एक जगह है मणिमहेश। कहते हैं भगवान शिव ने यहीं पर सदियों तक तपस्या की थी। इसके बाद से ये पहाड़ रहस्यमयी बन गया।पहाड़ की चोटी पर एक शिवलिंग बना है। मान्यता है कि भगवान शिव ने यहां वास करने के लिए यह रूप धारण किया था। लोग आज भी इस शिवलिंग की पूजा करते हैं।ऐसा माना जाता है कि आज तक इस पहाड़ की ऊंचाई कोई नहीं नाप पाया। इस पहाड़ पर चढ़ना मुश्किल नहीं नामुनकिन है।
जो भी उपर इस पहाड़ पर गया वह कभी वापस नहीं लौटा।
ऐसा माना जाता है कि आज तक इस पहाड़ की ऊंचाई कोई नहीं नाप पाया। इस पहाड़ पर चढ़ना मुश्किल नहीं नामुनकिन है।स्थानीय लोग व बुजुर्ग कहते हैं कि भले ही एवरेस्ट पर लोग चढ़ गए हों लेकिन इस पहाड़ पर चढ़ना इतना आसान नहीं है।
एक प्रचलित पौराणिक कथा
कहते हैं एक बार एक गद्दी इस पहाड़ पर चढ़ गया था।मगर चोटी पर पहुंचने से पहले ही ये पत्थर में बदल गया। इसके साथ जो भेड़ें थी वे भी पत्थर की बन गई। इसके कुछ मिलते जुलते पत्थर आज भी यहां पड़े हैं।एक और मान्यता ये भी है कि एक बार एक सांप ने इस पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश की थी मगर वह भी पत्थर का बन गया था। इसके बाद किसी ने भी यहां चढ़ने की कोशिश तक नहीं की।
देवभूमि हिमाचल में वैसे तो पूरे साल मेले और त्यौहार होते रहते हैं। मगर चंबा मणिमहेश भरमौर जातर का विशेष महत्व है। माना जाता है कि ब्रम्हाणी कुंड में स्नान किए बिना मणिमहेश यात्रा अधूरी है। आदिकाल से प्रचलित मणिमहेश यात्रा कब से शुरू हुई यह तो पता नहीं मगर पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह बात सही है कि जब मणिमहेश यात्रा पर गुरु गोरखनाथ अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे तो भरमौर तत्कालीन ब्रम्हापुर में रुके थे। ब्रम्हापुर जिसे माता ब्रम्हाणी का निवास स्थान माना जाता था मगर गुरु गोरखनाथ अपने नाथों एवं चौरासी सिद्धों सहित यहीं रुकने का मन बना चुके थे। वे भगवान भोलेनाथ की अनुमति से यहां रुक गए मगर जब माता ब्रम्हाणी अपने भ्रमण से वापस लौटीं तो अपने निवास स्थान पर नंगे सिद्धों को देख कर आग बबूला हो गईं। भगवान भोलेनाथ के आग्रह करने के बाद ही माता ने उन्हें रात्रि विश्राम की अनुमति दी और स्वयं यहां से 3 किलोमीटर ऊपर साहर नामक स्थान पर चली गईं, जहां से उन्हें नंगे सिद्ध नजर न आएं मगर सुबह जब माता वापस आईं तो देखा कि सभी नाथ व चौरासी सिद्ध वहां लिंग का रूप धारण कर चुके थे जो आज भी इस चौरासी मंदिर परिसर में विराजमान हैं। यह स्थान चौरासी सिद्धों की तपोस्थली बन गया, इसलिए इसे चौरासी कहा जाता है। गुस्से से आग बबूला माता ब्रम्हाणी शिवजी भगवान के आश्वासन के बाद ही शांत हुईं।
भगवान शंकर ने दिया आशीर्वाद
भगवान शंकर के ही कहने पर माता ब्रम्हाणी नए स्थान पर रहने को तैयार हुईं तथा भगवान शंकर ने उन्हें आश्वासन दिया कि जो भी मणिमहेश यात्री पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान नहीं करेगा उसकी यात्रा पूरी नहीं मानी जाएगी। यानी मणिमहेश जाने वाले प्रत्येक यात्री को पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान करना होगा, उसके बाद ही मणिमहेश की डल झील में स्नान करने के बाद उसकी यात्रा संपूर्ण मानी जाती है। ऐसी मान्यता सदियों से प्रचलित है। इस वर्ष इस पवित्र यात्रा का छोटा स्नान कृश्ण जन्माश्टमी यानी 15 अगस्त को तथा मुख्य एवं बड़ा स्नान उसके 15 दिन बाद 30 अगस्त को होगा। यात्रा पूरी तरह से मणिमहेश यात्रा ट्रस्ट के अधीन हो रही है। हड़सर से 13 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई एवं समुद्र तल से 13500 फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेश की डल झील एवं कैलाश दर्शन में भोलेनाथ के प्रति लोगों में इतनी श्रद्धा बढ़ गई है कि मौसम एवं कड़ाके की शीतलहर के बावजूद लाखों की संख्या में शिव भक्त यहां आते हैं। यही वजह है कि अटूट श्रद्धा के प्रतीक चौरासी मंदिर परिसर, ब्रम्हाणी माता एवं मणिमहेश लोगों को बरबस ही अपनी ओर खींच कर महीनों तक शिवजी के उद्घोषों से पूरे वातावरण को शिवमयी बनाए रखते हैं।
आक्सीजन सिलेंडर के साथ करनी पड़ती है यात्रा
ब्रहामाणी देवी के दर्शन के बाद लोग आकर चौरासी में मणिमहेश मंदिर के बाहर पारंपरिक वेशभूषा में बैठे चेलों से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और आगे की यात्रा के लिए तैयार हो जाते हैं। भरमौर में सातवीं शताब्दी में बने मंदिर हैं जहां के दर्शनों से ही मनुष्य के पाप धुल जाते हैं । भरमौर से आगे की यात्रा बहुत ही आनंददायक हैं। चारों और उंचे उंचे पहाड़ों के बीच से होकर जाना पड़ता है हर मोड़ पर ऐसा लगता है कि इसके आगे रास्ता बंद है। ऐसा करते करते यात्री गांव हड़सर में पंहुच जाता है। गांव हड़सर जो ब्रहामणों का गांव है। यहां पर एक प्राचीन शिव मंदिर है। ब्रहामाणी देवी मंदिर के कुंड में स्नान करने के बाद हड़सर में स्नान करने का रिवाज़ है यहां पर मणिमहेश से आने वाले पानी से स्नान किया जाता है । पुराने समय से ही इस जगह पर रहने वाले ब्रहामण लोग यात्रियों को अपने घरों में ठहराते आ रहे हैं। देखा जाये तो वास्तविक यात्रा यहीं से आरंभ होती है पैदल। आपको यहां पर घोड़े मिल जाते हैं। यहां पर कांगड़ा जिला के एक गांव के लोगों द्वारा छडिय़ों का प्रबंध किया जाता है आगे जाने वाले इस जगन से छड़ियों को लेकर चल सकते हैं। आगे हर थोड़ी दूरी पर लंगर मिल जाता है चाय पिलाते हैं काफी देते हैं प्रदेश सरकार की तरफ से भी बहुत प्रबंध किये जाते हैं डाक्टर दवाईयां लेकर हर जगह पर मिल जाता है। आक्सीजन के सिलेंडर रखे होते हैं।
भगवान शिव से जुड़े देश भर में ऐसे कई स्थान हैं जो भोलेनाथ के चमत्कारों के गवाह रहे हैं। ऐसी ही एक जगह है मणिमहेश। कहते हैं भगवान शिव ने यहीं पर सदियों तक तपस्या की थी। इसके बाद से ये पहाड़ रहस्यमयी बन गया।पहाड़ की चोटी पर एक शिवलिंग बना है। मान्यता है कि भगवान शिव ने यहां वास करने के लिए यह रूप धारण किया था। लोग आज भी इस शिवलिंग की पूजा करते हैं।ऐसा माना जाता है कि आज तक इस पहाड़ की ऊंचाई कोई नहीं नाप पाया। इस पहाड़ पर चढ़ना मुश्किल नहीं नामुनकिन है।
जो भी उपर इस पहाड़ पर गया वह कभी वापस नहीं लौटा।
ऐसा माना जाता है कि आज तक इस पहाड़ की ऊंचाई कोई नहीं नाप पाया। इस पहाड़ पर चढ़ना मुश्किल नहीं नामुनकिन है।स्थानीय लोग व बुजुर्ग कहते हैं कि भले ही एवरेस्ट पर लोग चढ़ गए हों लेकिन इस पहाड़ पर चढ़ना इतना आसान नहीं है।
एक प्रचलित पौराणिक कथा
कहते हैं एक बार एक गद्दी इस पहाड़ पर चढ़ गया था।मगर चोटी पर पहुंचने से पहले ही ये पत्थर में बदल गया। इसके साथ जो भेड़ें थी वे भी पत्थर की बन गई। इसके कुछ मिलते जुलते पत्थर आज भी यहां पड़े हैं।एक और मान्यता ये भी है कि एक बार एक सांप ने इस पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश की थी मगर वह भी पत्थर का बन गया था। इसके बाद किसी ने भी यहां चढ़ने की कोशिश तक नहीं की।
चमत्कारों से भरी है ये जगह, शिव आधी रात को देते हैं भक्तों को दर्शन
हिमाचल के चंबा जिले में स्थित मणिमहेश यात्रा शुरू होती है । इस पहाड़ के नीचे पवित्र मणिमहेश झील है। लोग यहीं से इस चोटी के दर्शन करते हैं।कहते हैं कि चोटी का उपरी हिस्सा हमेशा बादलों से ढका रहता है। सिर्फ वही लोग इस चोटी के दर्शन करते हैं जो सच्ची श्रद्घा से भगवान शिव को याद करते हैं। कई लोगों को एक साथ दर्शन करने पर ये चोटी दिखाई नहीं देती।
मणिमहेश नाम की सच्चाई
इस जगह का नाम मणिमहेश क्यों पड़ा, इसका एक विशेष कारण है। विद्वानों के अनुसार पर्वत के शिखर पर शिव शेषनाग मणि के रूप में विराजमान है। वे इसी रूप में भक्तों को दिखाई देते हैं। इसके अलावा इस शब्द का मतलब महेश के मुकुट में नगीना भी है।
सूरज की किरणों से बदलता है रंग
मणिमहेश पर्वत पर शिव शाम व रात्रि के मध्यकाल में दर्शन देते हैं। सूर्यास्त के समय जब सूर्य की किरणे जब पर्वत के शिखर पर पड़ती है तब पूरा दृश्य स्वर्णिम हो जाता है। यदि मौसम साफ रहे तो भक्त पर्वत की चोटी व उस पर विराजमान शिव को देख सकते हैं।
पिंडी रूप में दृश्यमान शिखर
कैलाश पर्वत के शिखर के ठीक नीचे बर्फ से घिरा एक छोटा-सा शिखर पिंडी रूप में दृश्यमान होता है। स्थानीय लोगों के अनुसार यह भारी हिमपात होने पर भी हमेशा दिखाई देता रहता है। इसी को श्रद्धालु शिव रूप मानकर नमस्कार करते हैं। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार वसंत ऋतु के आरंभ से और वर्षा ऋतु के अंत तक छह महीने भगवान शिव सपरिवार कैलाश पर निवास करते हैं और उसके बाद शरद् ऋतु से लेकर वसंत ऋतु तक छ: महीने कैलाश से नीचे उतर कर पतालपुर (पयालपुर) में निवास करते हैं.
इसी समय-सारिणी से इस क्षेत्र का व्यवसाय आदि चलता था। शीत ऋतु शुरू होने से पहले यहां के निवासी नीचे मैदानी क्षेत्रों में पलायन कर जाते थे। और वसंत ऋतु आते ही अपने मूल निवास स्थानों पर लौट आते थे। श्रीराधाष्टमी पर मणिमहेश-सरोवर पर अंतिम स्नान इस बात का प्रतीक माना जाता है कि अब शिव कैलाश छोड़कर नीचे पतालपुर के लिए प्रस्थान करेंगे।
सबको नहीं दिखता है पर्वत का शिखर
कई लोगों का मानना है कि मणिमहेश पर्वत का शिखर अदृश्य है। ये हमेशा बादलों व बर्फ से ढका रहता है। ये चोटी महज उसी को दिख सकती है जो पूर्ण रूप से पाप मुक्त हो व सच्ची श्रद्धा से भोले भंडारी को याद कर रहा हो।
मणिमहेश : गौरीकुंड
धन्छो से आगे और मणिमहेश-सरोवर से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर पहले गौरीकुंड है। पूरे पहाड़ी मार्ग में गैर सरकारी संस्थानों द्वारा यात्रियों के लिए नि:शुल्क लंगर सेवा उपलब्ध करायी जाती है। गौरीकुंड से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर पर स्थित है मणिमहेश- सरोवर आम यात्रियों व श्रद्धालुओं के लिए यही अंतिम पड़ाव है। ध्यान देने की बात है कि कैलाश के साथ सरोवर का होना सर्वव्यापक है.तिब्बत में कैलाश के साथ मानसरोवर है तो आदि-कैलाश के साथ पार्वती कुंड और भरमौर में कैलाश के साथ मणिमहेश सरोवर। यहां पर भक्तगण सरोवर के बर्फ से ठंडे जल में स्नान करते हैं। फिर सरोवर के किनारे स्थापित श्वेत पत्थर की शिवलिंग रूपी मूर्ति (जिसे छठी शताब्दी का बताया जाता है) पर अपनी श्रद्धापूर्ण पूजा-अर्चना अर्पण करते हैं। इसी मणिमहेश सरोवर से पूर्व दिशा में स्थित विशाल और गगनचुंबी नीलमणि के गुण धर्म से युक्त हिमाच्छादित कैलाश पर्वत के दर्शन होते हैं।हिमाचल पर्यटन विभाग द्वारा प्रकाशित प्रचार-पत्र में इस पर्वत को ”टरकोइज माउंटेन” लिखा है। टरकोइज का अर्थ है वैदूर्यमणि या नीलमणि। यूं तो साधारणतया सूर्योदय के समय क्षितिज में लालिमा छाती है और उसके साथ प्रकाश की सुनहरी किरणें निकलती हैं। लेकिन मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे से जब सूर्य उदय होता है तो सारे आकाशमंडल में नीलिमा छा जाती है और सूर्य के प्रकाश की किरणें नीले रंग में निकलती हैं जिनसे पूरा वातावरण नीले रंग के प्रकाश से ओतप्रोत हो जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि इस कैलाश पर्वत में नीलमणि के गुण-धर्म मौजूद हैं जिनसे टकराकर प्रकाश की किरणें नीली रंग जाती हैं।
कैसे शुरू हुई यात्रा?
देवभूमि हिमाचल में वैसे तो पूरे साल मेले और त्यौहार होते रहते हैं। मगर चंबा मणिमहेश भरमौर जातर का विशेष महत्व है। माना जाता है कि ब्रम्हाणी कुंड में स्नान किए बिना मणिमहेश यात्रा अधूरी है। आदिकाल से प्रचलित मणिमहेश यात्रा कब से शुरू हुई यह तो पता नहीं मगर पौराणिक मान्यताओं के अनुसार यह बात सही है कि जब मणिमहेश यात्रा पर गुरु गोरखनाथ अपने शिष्यों के साथ जा रहे थे तो भरमौर तत्कालीन ब्रम्हापुर में रुके थे। ब्रम्हापुर जिसे माता ब्रम्हाणी का निवास स्थान माना जाता था मगर गुरु गोरखनाथ अपने नाथों एवं चौरासी सिद्धों सहित यहीं रुकने का मन बना चुके थे। वे भगवान भोलेनाथ की अनुमति से यहां रुक गए मगर जब माता ब्रम्हाणी अपने भ्रमण से वापस लौटीं तो अपने निवास स्थान पर नंगे सिद्धों को देख कर आग बबूला हो गईं। भगवान भोलेनाथ के आग्रह करने के बाद ही माता ने उन्हें रात्रि विश्राम की अनुमति दी और स्वयं यहां से 3 किलोमीटर ऊपर साहर नामक स्थान पर चली गईं, जहां से उन्हें नंगे सिद्ध नजर न आएं मगर सुबह जब माता वापस आईं तो देखा कि सभी नाथ व चौरासी सिद्ध वहां लिंग का रूप धारण कर चुके थे जो आज भी इस चौरासी मंदिर परिसर में विराजमान हैं। यह स्थान चौरासी सिद्धों की तपोस्थली बन गया, इसलिए इसे चौरासी कहा जाता है। गुस्से से आग बबूला माता ब्रम्हाणी शिवजी भगवान के आश्वासन के बाद ही शांत हुईं।
भगवान शंकर ने दिया आशीर्वाद
भगवान शंकर के ही कहने पर माता ब्रम्हाणी नए स्थान पर रहने को तैयार हुईं तथा भगवान शंकर ने उन्हें आश्वासन दिया कि जो भी मणिमहेश यात्री पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान नहीं करेगा उसकी यात्रा पूरी नहीं मानी जाएगी। यानी मणिमहेश जाने वाले प्रत्येक यात्री को पहले ब्रम्हाणी कुंड में स्नान करना होगा, उसके बाद ही मणिमहेश की डल झील में स्नान करने के बाद उसकी यात्रा संपूर्ण मानी जाती है। ऐसी मान्यता सदियों से प्रचलित है। इस वर्ष इस पवित्र यात्रा का छोटा स्नान कृश्ण जन्माश्टमी यानी 15 अगस्त को तथा मुख्य एवं बड़ा स्नान उसके 15 दिन बाद 30 अगस्त को होगा। यात्रा पूरी तरह से मणिमहेश यात्रा ट्रस्ट के अधीन हो रही है। हड़सर से 13 किलोमीटर की कठिन चढ़ाई एवं समुद्र तल से 13500 फुट की ऊंचाई पर स्थित मणिमहेश की डल झील एवं कैलाश दर्शन में भोलेनाथ के प्रति लोगों में इतनी श्रद्धा बढ़ गई है कि मौसम एवं कड़ाके की शीतलहर के बावजूद लाखों की संख्या में शिव भक्त यहां आते हैं। यही वजह है कि अटूट श्रद्धा के प्रतीक चौरासी मंदिर परिसर, ब्रम्हाणी माता एवं मणिमहेश लोगों को बरबस ही अपनी ओर खींच कर महीनों तक शिवजी के उद्घोषों से पूरे वातावरण को शिवमयी बनाए रखते हैं।
आक्सीजन सिलेंडर के साथ करनी पड़ती है यात्रा
ब्रहामाणी देवी के दर्शन के बाद लोग आकर चौरासी में मणिमहेश मंदिर के बाहर पारंपरिक वेशभूषा में बैठे चेलों से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और आगे की यात्रा के लिए तैयार हो जाते हैं। भरमौर में सातवीं शताब्दी में बने मंदिर हैं जहां के दर्शनों से ही मनुष्य के पाप धुल जाते हैं । भरमौर से आगे की यात्रा बहुत ही आनंददायक हैं। चारों और उंचे उंचे पहाड़ों के बीच से होकर जाना पड़ता है हर मोड़ पर ऐसा लगता है कि इसके आगे रास्ता बंद है। ऐसा करते करते यात्री गांव हड़सर में पंहुच जाता है। गांव हड़सर जो ब्रहामणों का गांव है। यहां पर एक प्राचीन शिव मंदिर है। ब्रहामाणी देवी मंदिर के कुंड में स्नान करने के बाद हड़सर में स्नान करने का रिवाज़ है यहां पर मणिमहेश से आने वाले पानी से स्नान किया जाता है । पुराने समय से ही इस जगह पर रहने वाले ब्रहामण लोग यात्रियों को अपने घरों में ठहराते आ रहे हैं। देखा जाये तो वास्तविक यात्रा यहीं से आरंभ होती है पैदल। आपको यहां पर घोड़े मिल जाते हैं। यहां पर कांगड़ा जिला के एक गांव के लोगों द्वारा छडिय़ों का प्रबंध किया जाता है आगे जाने वाले इस जगन से छड़ियों को लेकर चल सकते हैं। आगे हर थोड़ी दूरी पर लंगर मिल जाता है चाय पिलाते हैं काफी देते हैं प्रदेश सरकार की तरफ से भी बहुत प्रबंध किये जाते हैं डाक्टर दवाईयां लेकर हर जगह पर मिल जाता है। आक्सीजन के सिलेंडर रखे होते हैं।
हर हर महादेव
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